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संपादकीय: जब नैतिकता खोती है, भ्रष्टाचार जन्म लेता है।

भ्रष्टाचार: जब समाज की आत्मा घायल होती है।

संपादकीय
भ्रष्टाचार आज केवल एक राजनीतिक या प्रशासनिक संकट नहीं रह गया है। यह अब समाज की रग-रग में बस चुकी एक गहरी बीमारी बन चुकी है। यह बीमारी ऊपर से नीचे तक — हर स्तर पर, हर वर्ग में फैली है। और सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह केवल एक ‘विरोध करने योग्य अन्याय’ नहीं रहा, बल्कि एक ‘सामान्य व्यवहार’ के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है।

जब किसी सरकारी दफ्तर में फाइल आगे बढ़वाने के लिए रिश्वत दी जाती है, या जब किसी प्रतियोगी परीक्षा में पास कराने के लिए जुगाड़ लगाया जाता है, तो ये केवल कानून का उल्लंघन नहीं होता — यह समाज के नैतिक पतन का प्रमाण होता है।

यह कहना आसान है कि भ्रष्टाचार सरकार की विफलता है। पर क्या हम अपने दायित्वों से बच सकते हैं? जब एक आम नागरिक सुविधा के लिए भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनता है, तब वह खुद भी उस गुनाह का साझेदार बन जाता है।
सरकारी तंत्र में पारदर्शिता की कमी, शिक्षा और न्याय प्रणाली में गिरावट, और जवाबदेही के अभाव ने इस बीमारी को और गहरा किया है।

इस समस्या का समाधान केवल कड़े कानूनों या छापेमारी से नहीं निकलेगा। इसके लिए ज़रूरत है एक सामूहिक नैतिक पुनर्जागरण की।

  • शिक्षा में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता देनी होगी।

  • सरकारी प्रक्रियाओं में अधिक डिजिटलीकरण और पारदर्शिता लानी होगी।

  • जनता को RTI (सूचना का अधिकार) जैसे साधनों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए।

  • मीडिया और नागरिक संगठनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है जो सच को सामने लाने में मदद करते हैं।

1. भ्रष्टाचार का दायरा सिर्फ सत्ता नहीं, समाज भी है दोषी।

जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं, तो अक्सर उंगलियां राजनेताओं, अधिकारियों या सरकारी संस्थानों की ओर उठती हैं। पर क्या यह तस्वीर पूरी है?
एक ईमानदार प्रश्न यह होना चाहिए कि आम नागरिक, व्यापारी, शिक्षक, डॉक्टर — क्या हम सब कभी न कभी इस तंत्र का हिस्सा नहीं बने? जब हम छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए नैतिक समझौते करते हैं, हम इस समस्या का हिस्सा बन जाते हैं।


2. नैतिक पतन से राजनीतिक संकट तक: भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं?

भ्रष्टाचार केवल लेन-देन या घूस देने-लेने की प्रक्रिया नहीं है, यह एक नैतिक गिरावट है। जब समाज में ईमानदारी को मूर्खता समझा जाने लगे और चालाकी को चतुराई, तो यह संकेत होता है कि हम एक गहरे संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
यह गिरावट शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और मीडिया जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों तक फैल चुकी है।


3. हर स्तर पर फैला भ्रष्टाचार: जवाबदेही सिर्फ सरकार की नहीं, समाज की भी है।

सड़क से लेकर संसद तक, और अस्पताल से लेकर अदालत तक — भ्रष्टाचार की छाया दिखाई देती है। लेकिन इसे मिटाने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार पर डालना आसान रास्ता है। असल ज़िम्मेदारी तब तय होती है, जब जनता अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों को भी समझे


4. भ्रष्टाचार – एक राष्ट्रीय समस्या या हमारी सामूहिक चुप्पी का परिणाम?

जब हम गलत देखकर भी चुप रहते हैं, तो यह चुप्पी व्यवस्था को और अधिक बेलगाम कर देती है।
आरटीआई जैसे उपकरण हमारे पास हैं, लेकिन बहुत कम लोग उसका प्रयोग करते हैं।
सामूहिक चुप्पी भ्रष्टाचार को ‘सामान्यता’ का दर्जा देती है, और यही सबसे बड़ा खतरा है।


5. सिर्फ कानून नहीं, ज़रूरत है नैतिक क्रांति की – भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई।

कई कानून बने, आयोग गठित हुए, छापे पड़े — लेकिन क्या वाकई कुछ बदला?
जब तक मनुष्यता और नैतिकता का जागरण नहीं होगा, तब तक कोई भी कानून इस बीमारी को मिटा नहीं पाएगा। बदलाव अंदर से आएगा, ऊपर से थोपा नहीं जा सकता।


6. भ्रष्टाचार का चेहरा बदल गया है, पर इरादा अब भी वही है।

आज के दौर में भ्रष्टाचार डिजिटल रूप में भी देखने को मिलता है — फर्जी दस्तावेज़, ऑनलाइन घोटाले, डेटा में हेराफेरी।
भले ही इसके तौर-तरीके बदल गए हों, लेकिन इसका मूल उद्देश्य अब भी वही है: निजी लाभ के लिए सार्वजनिक संसाधनों का शोषण


7. जब रिश्वत व्यवहार बन जाए, तो व्यवस्था दम तोड़ देती है।

अगर किसी अफसर को बिना घूस दिए काम नहीं होता, या परीक्षा में नंबर सिर्फ सिफारिश से आते हैं, तो यह संकेत है कि व्यवस्था नैतिक मृत्यु की ओर बढ़ रही है
भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं, बल्कि सिस्टम की आत्मा को खोखला कर देना है।


8. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ युद्ध – क्या समाज तैयार है आत्ममंथन के लिए?

इस लड़ाई की शुरुआत सरकार से नहीं, घर से होगी।
क्या हम अपने बच्चों को ईमानदारी का मूल्य समझा पा रहे हैं? क्या हम अपने कार्यस्थल पर नैतिक निर्णय लेने की हिम्मत रखते हैं?
आत्ममंथन और व्यक्तिगत बदलाव के बिना यह युद्ध अधूरा रहेगा।


9. अगर हम चुप हैं, तो हम भी दोषी हैं – समाज में बढ़ता भ्रष्टाचार और हमारी भूमिका।

खामोशी कभी-कभी समर्थन बन जाती है।
अगर हम अपने आस-पास भ्रष्टाचार देख कर भी मौन हैं, तो हम भी इस तंत्र को मजबूत कर रहे हैं।
हर चुप्पी एक और गलत को जीवित रखती है।


✍️ लेखक:

रवि कुमार शाक्य
प्रधान संपादक
राष्ट्रीय न्यूज़ टुडे

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